Youth & Literature - Need to Connect

The generational gap as the most serious aspect of the crisis facing human being. Silo (www.silo.net) spoke about it on various occasions, emphasizing that it needs to be defused.

Today, I came across this article in Jansatta.com that explains how the youth has been getting away from literature and how this affects the generations in a violent way. This article raises many questions that, I believe, need to be discussed.

The article, in Hindi, is an important point of view that talks about the connectivity of young people with Literature. If people are away from Literature, they fall easy prey to the system and its propaganda. They start believing in whatever the system presents as “the truth”.

Though this distancing has not started today, surely, this has been increasing both in terms of its speed and distance.

No wonder what is seen in some chat, group, wall, mail, goggle-search, etc., is seen as the truth by many, just because it is there on the computer.

Computer (smart-phone) screen that has become the popular source of information, is also misused as fake-media. And, if the fake-media becomes the educator or source of information, we ourselves are failing our education system. If fake-media becomes the source of our information, it is obviously going to vitiate sensible, caring, humane behaviour/attitude for each other or for life.

The article raises the point of increasing difference between what is learnt and what is needed in life. This is an important aspect requiring urgent attention.

The best of the education is also failing in many cases.

No wonder while everyone wants to go to IIT, IIM and the likes, there are regular cases of students committing suicide there also, showing the unfortunate fact that the mere education there does not guarantee the development of a balanced/humane behaviour.

The perpetual-normal hunger of human mind for growth and creative thinking-action-inventions has always been there, and thanks to strong opposition, it creates new ways of liberty and growth. Science, Writing, Music, Painting, Teaching are among such domains that have raised the positive vision of a new world. This positivity or negativity depends on the “intent” of the person and development of the “positive intent” seems to be the task of education.

We need to examine as to what and who is giving rise to the “intent” of different kinds among the people. Surely, the education system is the biggest contributor to this aspect of human growth and hence it needs a great amount of efforts.

All these points need discussions, sharing of views, efforts to understand each other without prejudice of “I am the best”, involving large number of people, apart from educationists, learners, policymakers. In fact, everyone should be welcome to be part of such a discussion.

Libraries are one such environment (among many others), where, under the able coordination of a good Librarian, there can be open discussions among the learners, teachers, authors, publishers and other experts to carry on the exchange of ideas, developing the positive intent. Librarians are crucial for this change and Best Book Buddies is working to promote libraries and librarians through its technology initiative of automating and networking them across the world.

BestBookBuddies.com is a platform that promotes such discussions and you are welcome to discuss this issue at: www.bestbookbuddies.com

All discussions are welcome, without any discrimination and without promoting any violence.

The platform is yours and you are welcome.

We, at BestBookBuddies, extend our heartfelt thanks to Jansatta newspaper for giving prominent space to this well written article as a point-of-view. Though all may not agree to the issues raised, we hope this gives the positive signal to our society to re-think its path and the intent.

Thanks to Jansatta for the article and the image.

URL of the article: https://www.jansatta.com/sunday-column/opinion-about-youth-dissenting-from-literature/631932/

 

April 15, 2018

 

युवाओं की साहित्य विमुखता

आज की युवा पीढ़ी के बारे में कहा जाता है कि साहित्य से उसे कोई लगाव नहीं है।

रमेश मल्ल

 

आज की युवा पीढ़ी के बारे में कहा जाता है कि साहित्य से उसे कोई लगाव नहीं है। कुछ तो रोजगारपरक शिक्षा के दबाव में और कुछ आधुनिक सूचना तकनीक के मोह मेें, यह पीढ़ी साहित्यिक किताबों से दूर होती गई है। इसके पीछे एक वजह पठनीय गंभीर साहित्य का न लिखा जाना भी बताया जाता है। कारण जो भी हों, पर युवा पीढ़ी के साहित्य से विमुख होने को समाज के लिए बड़े खतरे के रूप में रेखांकित किया जाता है। साहित्य से संवेदना का विकास होता है और संवेदना के अभाव में व्यक्ति में हिंसक और क्रूर वृत्तियां पनपती हैं। युवा पीढ़ी का साहित्य से जुड़ाव कैसे बने, इस बार की चर्चा इसी पर केंद्रित है। – संपादक

 

तुमने जहां लिखा है प्यार,

वहां लिख दो सड़क

फर्क नहीं पड़ता:

मेरे युग का मुहावरा है, फर्क नहीं पड़ता।

(केदारनाथ सिंह)


मारी युवा पीढ़ी के लिए ‘प्यार’ और ‘सड़क’ में फर्क नहीं बचा है। बेहद अराजक, भाव-विचार-संवेदना से शून्य, प्रतिबद्धता से मुक्त, संबंधों के प्रति लापरवाह, देश-समाज के जरूरी सवालों से आजाद, निरंतर मनोरंजन की तलाश, जल्दी प्रत्येक वस्तु-व्यक्ति-स्थान से बोर होना उसकी अभिलाक्षणिक विशेषताएं हैं। इन सारी बातों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है उसका साहित्य, कला, संस्कृति से विरत हो जाना है। विचारशून्यता का आलम यह है कि बिना सोचे-समझे वे ऐसे कार्यों को अंजाम दे देते हैं, जिनका परिणाम दूरगामी और एक हद तक मानव-विरोधी तक हो जाता है। एक समूची युवा पीढ़ी की साहित्य से विमुखता चकित-विस्मित कर सकती है, लेकिन सच तो यही है। साहित्य में कम हुई दिलचस्पी और महान मानवीय मूल्यों से विरत होना ही कहीं इसका कारण तो नहीं है। क्या साहित्य संस्कारों से मुक्त होने के कारण ही तो ऐसा नहीं हो रहा है। आज का सबसे बड़ा और गंभीर प्रश्न है।

इससे अलग, यह भी सोचा जाना चाहिए कि क्या आज का लिखा जा रहा साहित्य ही तो नहीं जिम्मेदार है कि उसने अपना पाठक खो दिया है। भविष्य की भयावह अनिश्चितता ने ही तो कहीं हमारे युवा साथियों को अगंभीर बना दिया है। या कहीं ऐसा तो नहीं कि सस्ते बाजारवाद-उपभोक्तावाद ने जीवन जीने के महान भावों को विनष्ट कर दिया है। दोष किसका है। बीमारी की जड़ कहां है। कविता-कहानी-गीत-संगीत के महान मानवीय सौंदर्यबोधीय तराने के आनंद से कैसे विमुख हो गए हमारे युवा साथी। इसकी व्याख्या विश्लेषण जरूरी है।

 

सबसे पहले हमें उन परिस्थितियों का ध्यान होना चाहिए, जिसमें हमारी युवा पीढ़ी पली-पढ़ी है। हमने ही तो उसे ‘कॉमिक्स’ से शुरू करके हैरी पॉटर की जादुई दुनिया दी है। और फिर मास-मॉल कल्चर और इंटरनेट के भीतर गूगल के हाथों सौंप दिया। हमने ‘हार की जीत’ (सुदर्शन), ईदगाह (प्रेमचंद), काबुलीवाला (रवींद्रनाथ टैगौर) के बरक्स एक दूसरा बचपन दिया। चमत्कार और जादुई-दुनिया। फिर बेहतर करिअर के लिए तनावपूर्ण संसार में ढकेल दिया। फालतू और उपयोगी की दीवार खड़ी की। उपयोगिता को उपभोग बना डाला। जीवन के महान मूल्यों, यहां तक कि मित्रता जैसे जरूरी रिश्ते को गैर-उपयोगी बता कर कमरे में पूरी पीढ़ी को कैद कर दिया। आश्चर्यजनक रूप से ठीक इसी समय हमारी कविताएं बेजान और बेस्वाद होती गर्इं। उनके भीतर से जीवन की युवा ऊष्मा गायब हो गई। जैसे उनके भीतर का मानवीय राग सो गया। इस रूप में जहां युवा पीढ़ी महत्त्वपूर्ण और महान भावों से विरत हुई, वहीं साहित्य सृजन की अपनी सीमाओं ने उसे साहित्य विमुख किया। समूची युवा पीढ़ी की वस्तुगत परिस्थितियां एक तो साहित्य विमुख थीं, वहीं उनको केंद्र में रख कर साहित्य सृजन नहीं हुआ।


इस क्रम में साहित्य के लगाव का एक और अवसर बनता है। वह है हमारी शिक्षा प्रणाली, पाठ्यक्रम। पाठ्यक्रम में मौजूद साहित्य कहीं न कहीं हमारे युवाओं को साहित्य का साक्षात्कार कराने का माध्यम हो सकता था। लेकिन पाठ्यक्रम से इतर जाने या पाठ से जीवन का विलगाव वह कठिन समस्या है, जिसने युवाओं को विभाजित जीवन दिया है। पढ़ना और जीना, धीरे-धीरे दो ध्रुवांत बन गए हैं। ‘पाठ’ और ‘जीवन’ की यह फांक हमें साहित्य विमुख और बौना बना देती है। विचार-भाव-दृष्टिबोध से निर्मित ज्ञान के मूल स्रोत ‘पाठ’ और ‘जीवन’ दोनों को मिला कर बनते हैं। दोनों का संश्लेष ही हमें जीवन में मौजूद सौंदर्य राग और महान मूल्यों तक ले जाता है। पढ़ना, समझना, देखना और जीना एक सीधी प्रक्रिया है, जो आज विखंडित हो गई है। हम पढ़ते कुछ हैं और जीते कुछ हैं या पढ़ते ही नहीं हैं और जीवन को दैनंदिन क्षुद्रताओं में फेंक देते हैं। साहित्य ही वह जगह है, जहां से मानवीयता और जीवन जीने की कला मिल सकती है। आज के युवा के जीवन में वह अनुपस्थित है।

यह भी ध्यान देने की बात है कि हमारे युवाओं के पास वह बहुत कुछ नहीं है, जो हमारे पास था। किताबों की दुकानें थी। जीवंत पुस्कालय थे। लड़ने-झगड़ने वाले दोस्त थे। अध्ययन-चक्र थे। गप्पबाजी के अड्डे थे। पत्र-पत्रिकाएं थीं। यह सब जीवन को सारवान बनाता था। साहित्य, विचारों, दृष्टिबोध और भावों से जोड़ता था और हमें समृद्ध करता था। आज युवाओं के यहां साहित्य-कला-संगीत के लिए कोई जगह बची ही नहीं है। संस्कारित करने, रुचियों का परिष्कार करने, धीमी आंच पर विचार-भाव दृष्टि के पुष्ट होने के अवसर हमारे युवाओं के जीवन से समाप्त प्राय है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि उनके जीवन से ‘साहित्य’ उठ जाय।

 

आज की स्थिति ऐसी हो गई है कि अगर कोई चाहे तो भी उसे साहित्य कैसे मिलेगा? सबसे अलाभकारी पेशा और क्षेत्र होने के कारण बाजार से भी वह धीरे-धीरे गायब हो गया है। पत्रिकाओं, अखबारों चैनलों पर साहित्य का कोना भी अब नसीब नहीं है। किताबों के छपने-आने-चर्चित होने पर कोई खबर नहीं होती। सिर्फ प्रायोजित लोकार्पणों से आप लेखक और किताब का नाम जान सकते हैं। स्मृतियों के पाठ से कोई वातावरण नहीं बन सकता। हमें जीवंत मानवीयता से भरपूर राग वाला साहित्य चाहिए, जो युवाओं को नई स्फूर्ति और संस्कार दे सके।

 

इस समस्या का एक बड़ा कारण वह भीड़ है, जो अपने को कवि-साहित्यकार मान कर रोज बहुत सारा अग्राह्य लिख रही है। उसे प्रेम और पोर्न में फर्क करने की समझ तक नहीं है। साहित्य के नाम पर लिखी जा रही ये रचनाएं एक अराजक माहौल रच रही हैं। चूसे हुए शब्दों का मलबा और अनंत दुहराव वाले ऐसे साहित्य ने एक अरुचिकर संसार बनाया है, जहां साहित्य को छोड़ कर सब कुछ है। यहां गंभीरता नहीं है। एक तरह से गैर-जिम्मेदारनापन है। यह आभाषी माध्यमों में भी है और छपे हुए पृष्ठों के रूप में भी। रोज ऐसा कुछ पढ़ने को मिलता रहता है, जो सभी को साहित्य विमुख बनाता है। स्वाद-संस्कार बिगड़ जाने पर स्वादिष्ट व्यंजन की न चाह रहती है, न ही जरूरत। इस रूप में साहित्य की अभिरुचि ही कहीं खो-सी गई है। इस बीच कहीं अच्छी रचनाएं आती हैं, तो वे भी अराजक माहौल में खो-सी जाती हैं। एक अजीब तरह के शोर का मंजर है, जहां सभी बोलते हैं और कोई सुनता ही नहीं है।

 

पर इन विपरीत स्थितियों में भी थोड़े से लोग ही सही इस ‘फालतू और अलाभकारी’ क्षेत्र में सक्रिय हैं, जो हमें निराश नहीं होने देते। कुछ कविताएं, कुछ कहानियां, कुछ उपन्यास, कुछ ऐसा गद्य-पद्य आ ही जाता है, जो हमें और हमारे युवाओं को आकर्षित करता है। इस सृजनधर्मी साहित्य से बाहर ज्ञान मीमांसा, समाज विज्ञान और समकालीन गतिकी को समझने-बूझने की रचनाएं कम ही सही, आती हैं और हमारे ज्ञानबोध को थोड़ा गहरा बनाती हैं। पर कुछ हजार के बीच का यह विमर्श अत्यंत नाकाफी है। अपने से बाहर लाखों युवाओं को जोड़ने में पूरी तरह विफल है।

हमें नए पाठक तैयार करने होंगे और लक्ष्य मान कर उन पाठक समूहों को संबोधित करते हुए कुछ नया रचना होगा, जिससे हमारी युवा पीढ़ी अनिवार्यत: उससे जुड़े। वरना हम एक साथ अपने युवा साथियों को महान अनुभूतियों, मूल्यों से वंचित कर देंगे। निश्चय ही सचेतन और सक्रिय प्रयासों द्वारा ही साहित्य से विमुख युवा पीढ़ी को जोड़ सकते हैं। यह हमारा जरूरी कार्यभार है।

Posted in Default Category on April 16 at 03:16 AM

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