राजनीति: किताबों की सामाजिक पहुंच का सवाल

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Jansatta: 23 April 2018

https://www.jansatta.com/politics/jansatta-column-politics-artical-the-question-of-social-access-to-books/638767/

राजनीति: किताबों की सामाजिक पहुंच का सवाल

छोटे-छोटे शहरों में भी शॉपिंग कॉम्पलैक्स का निर्माण धड़ल्ले से हो रहा है। वहां महंगे-महंगे उत्पादों के शोरूम खुल रहे हैं लेकिन किताबों की दुकानें नदारद हैं। सारी विसंगतियों के बावजूद लेखक लिख रहे हैं, प्रकाशक किताबें छाप रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि हिंदी के प्रकाशक किताबों की सामाजिक पहुंच की भी फिक्र करें। आम पाठकों तक किताबों की पहुंच बेहतर समाज-निर्माण के लिए भी जरूरी है।

रोहित कौशिक

 

 

आपाधापी के इस दौर में पढ़ने की संस्कृति और पुस्तकों पर छाए संकट की चर्चा होती रहती है। यह सुखद है कि इंटरनेट के इस युग में भी किताबों का महत्त्व बरकरार है। हालांकि इंटरनेट आगमन के शुरुआती दौर में यह चिंता जताई गई थी कि सूचना का यह अत्याधुनिक माध्यम किताबों के लिए नुकसानदेहसाबित होगा।

लेकिन इंटरनेट का उपयोग बढ़ने के साथ-साथ किताबों की उपयोगिता भी बढ़ती गई। आज जबकि डिजिटल लाइब्रेरी की अवधारणा जन्म ले चुकी है, तो ऐसे में पुन: किताबों का अस्तित्व खतरे में बताया जा रहा है। लेकिन सवाल है कि विदेशों में जहां डिजिटल लाइब्रेरी की अवधारणा हमारे देश से अधिक परिपक्व हो चुकी है, क्या किसी संकट की आहट सुनी गई हैविदेशों में इंटरनेट और डिजिटल लाइब्रेरी का अधिक उपयोग हो रहा है, इसके बावजूद वहां किताबों की लोकप्रियता बरकरार है। हालांकि कुछ लोग ‘किताबों पर संकट’ जैसे जुमले उछालते रहते हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि न तो आज किताबों पर कोई संकट है और न ही भविष्य में रहेगा। किताबों से हमारा रिश्ता बहुत पुराना है और यह यों ही कायम रहेगा। लेकिन आज जरूरत इस बात की है कि किताबें पाठकों तक भी पहुंचें। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस दौर में हिंदी के ज्यादातर प्रकाशक, किताबों को पाठकों तक पहुंचाने की ईमानदार कोशिश नहीं कर रहे हैं।



किताबों को मनुष्य का सबसे अच्छा मित्र कहा जाता है। इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर यदि किताबों को मनुष्य का हमसफर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्तिन होगी। बचपन से लेकर आखिरी समय तक किताबों के किसी न किसी स्वरूप से पढ़े-लिखे समाज का रिश्ता कायम रहता है। किताबें एक हमसफर की तरह ही हमसे रिश्ता निभाती हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम किताबों से यह रिश्ता निभा पाते हैं? यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम आज भी किताबों को उपहार में देने की संस्कृति विकसित नहीं कर पाए हैं। सौ रुपए की किताब हमें महंगी लगने लगती है लेकिन दो सौ रुपए का पिज्जा हमें महंगा नहीं लगता। विभिन्न महंगे सामान संग्रहीत करने में हमें कोई परहेज नहीं होता, लेकिन किताबों को संग्रहीत करने की लालसा हमारे अंदर पैदा नहीं होती। सूचना विस्फोट के इस दौर में भी हमारे यहां व्यक्तिगत पुस्तकालय या होम लाइब्रेरी की अवधारणा जन्म नहीं ले सकी है। लेकिन किताबों से इतनी बेरुखी के बाद भी किताबें हमारा पीछा नहीं छोड़ रही हैं और किसी न किसी रूप में हमारे जीवन में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना रही हैं। दरअसल, इस दौर में इंटरनेट ज्ञान प्राप्त करने का एक आवश्यक माध्यम जरूर है लेकिन यह कभी भी किताबों का विकल्प नहीं हो सकता। लाख दावों के बावजूद भारत में इंटरनेट अभी आम आदमी की पहुंच से बाहर है। किताब पढ़ने का अपना अलग सुख है। किताबों को बना किसी झंझट के कहीं भी ले जाया जा सकता है। एक कहानी या उपन्यास को किताब से पढ़ने का जो सुख है वह इंटरनेट से पढ़ने पर कभी प्राप्त नहीं हो सकता। किताबें स्वयं हमसे एक तारतम्य स्थापित कर लेती हैं। यह तारतम्य कब एक रिश्ते में बदल जाता है, हमें पता ही नहीं चलता। दरअसल, हम किताबों पर संकट की बात एक संकुचित दायरे में रह कर करते हैं। सामान्यत: जब भी किताबों पर संकट का जिक्र होता है तो हमारी बहस के केंद्र में मुख्यत: साहित्यिक किताबें ही होती हैं। पर हमें गैर-साहित्यिक किताबों पर भी ध्यान देना होगा। किताबों का संसार साहित्य तक सीमित नहीं है। सूचना विस्फोट के इस दौर में पाठकों से केवल साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने की आशा रखना भी बेमानी है।

अनेक पाठकों का मानना है कि समय की कमी और महंगी होने के कारण किताबें पाठकों तक नहीं पहुंच पा रही हैं। लेकिन सवाल यह है कि टीवी देखने और और गप मारने के लिए हमें समय कहां से मिल जाता है? सवाल यह भी है किताबों के संदर्भ में ही हमें महंगाई का ध्यान क्यों आता है? आज महंगाई का असर कहां नहीं है? समस्या तब उत्पन्न होती है जब प्रकाशक पुस्तकालयों में खपाने के लिए किताबों के दाम अनावश्यक रूप से बढ़ा देते हैं। इस व्यवस्था से किताब का असली पाठक तक पहुंचना कठिन हो जाता है। इसलिए किताबों को पाठकों तक पहुंचाने के लिए प्रकाशकों को सस्ते और पेपरबैक संस्करणों के प्रकाशन की जिम्मेदारी उठानी होगी। यह विडंबना ही है कि आज कुछ अपवादों को छोड़, हिंदी के ज्यादातर प्रकाशक किताबों को पाठकों तक पहुंचाने में रुचि नहीं ले रहे हैं। उनका सारा ध्यान सरकारी विभागों और पुस्तकालयों में किताबें खपाने पर है। ऐसे में हम पाठकों के साथ न्याय कैसे कर पाएंगे? हिंदी के प्रकाशकों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार को भी कोई ठोस और सार्थक पहल करनी होगी। हिंदीभाषी समाज में पढ़ने की प्रवृत्ति विकसित करने में भी पुस्तकालय अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।

 

 

पुस्तकालयों के तत्त्वावधान में कविता-कहानी प्रतियोगिताएं या क्विज प्रतियोगिताएं आयोजित की जा सकती हैं। इसी तरह पुस्तकालयों के तत्त्वावधान में ही नई प्रकाशित पुस्तकों पर परिचर्चाएं भी आयोजित की जा सकती हैं। इस तरह की परिचर्चाओं में लिखने-पढ़ने वाले जागरूक लोगों के साथ-साथ दूसरों को भी आमंत्रित किया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया के माध्यम से जहां एक ओर जनता को पुस्तकालयों द्वारा संचालित सृजनात्मक गतिविधियों की जानकारी मिलेगी, वहीं दूसरी ओर आम जनता को नई प्रकाशित पुस्तकों की जानकारी भी मिल सकेगी। इस तरह आम जनता भी पुस्तकालयों के प्रति आकर्षित होकर उनसे जुड़ सकेगी। इन सब गतिविधियों के माध्यम से आम लोगों में भी धीरे-धीरे पढ़ने की प्रवृत्ति विकसित होगी। आज हालत यह है कि लगभग सभी जिलों में राजकीय जिला पुस्तकालय हैं लेकिन अधिकतर लोगों को इन पुस्तकालयों की जानकारी ही नहीं है।


जहां तक साहित्यिक पुस्तकों पर संकट की बात है, तो यह पूरी तरह से सच नहीं है। यह सही है कि अब साहित्यिक पुस्तकों की कम प्रतियां छपती हैं लेकिन इस दौर में साहित्यिक पुस्तक छापने वाले प्रकाशकों की संख्या बढ़ी है और इस तरह साहित्यिक पुस्तकों के प्रकाशन में भी वृद्धि हुई है। इस दौर में लेखक अपना धन लगा कर किताब छपवा रहा है। छोटे-छोटे शहरों और कस्बों से भी साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। ऐसे में साहित्यिक पुस्तकों पर संकट की बात समझ में नही आती। दरअसल, छोटे प्रकाशकों को साहित्यिक पुस्तकों की मार्केटिंग में अनेक समस्याओं से जूझना पड़ता है। समाज में साहित्य के प्रति अरुचि के बहुत-से कारण हैं। सवाल है कि हम समाज में साहित्य के प्रति रुचि कैसे जगा सकते हैं? उपहार में पुस्तकें भेट करने से इस समस्या का काफी हद तक समाधान हो सकता है। जब हम अपने मित्रों और सगे-संबंधियों को महंगे-महंगे उपहार भेंट कर सकते हैं तो किताबें क्यों नहीं? इस व्यवस्था से जहां एक ओर साहित्यिक पुस्तकों के प्रति समाज की रुचि जाग्रत होगी, वहीं दूसरी ओर साहित्यिक पुस्तकों की मार्केटिंग में भी सफलता मिलेगी। यह दुभाग्यपूर्ण है कि छोटे-छोटे शहरों में भी शॉपिंग कॉम्पलैक्स का निर्माण धड़ल्ले से हो रहा है। वहां महंगे-महंगे उत्पादों के शोरूम खुल रहे हैं लेकिन किताबों की दुकानें नदारद हैं। सारी विसंगतियों के बावजूद लेखक लिख रहे हैं, प्रकाशक किताबें छाप रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि हिंदी के प्रकाशक किताबों की सामाजिक पहुंच की भी फिक्र करें। आम पाठकों तक किताबों की पहुंच बेहतर समाज-निर्माण के लिए भी जरूरी है।

 

 

Posted in Default Category on April 23 at 11:27 AM

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